02 September, 2017

बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते

बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते
तुम्हारी राह में मिटटी के घर नहीं आते
इसीलिए तुम्हे हम नज़र नहीं आते
मोहब्बतो के दिनों की यही खराबी है
ये रूठ जाएँ तो लौट कर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहजीब-ए-गम समझाने का
उन्ही के रोने में आंसू नज़र नहीं आते
खुशी की आँख में आंसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते
वसीम बरेलवी

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी

ग़ज़ल

कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ बाप के होंठों से हंसी जाती है
कतरा अब एह्तिजाज़ करे भी तो क्या मिले
दरिया जो लग रहे थे समंदर से जा मिले
हर शख्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले
इस दौर-ए-मुन्साफी में जरुरी नहीं वसीम
जिस शख्स की खता हो उसी को सजा मिले
वसीम बरेलवी

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