20 April, 2017

वसीम बरेलवी की गजल

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते

जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते

ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते

बिसाते-इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते

वसीम जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो लेके एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते

15 April, 2017

माँ

तू गहरी छाँव है अगर जिंदगी धूप है अम्मा,
धरा पर कब कहाँ तुझसा कोई स्वरुप है अम्मा।
अगर ईश्वर कहीं पर है उसे देखा कहाँ किसने,
धरा पर तो तू ही ईश्वर का कोई रुप है अम्मा।

भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं अम्मा,
तेरे हाथों की नरमाहट कहीं मिलती नहीं अम्मा।
मैं तन पे लादे फिरता हूँ दुशाले रेशमी फिर भी,
तेरी गोदी-सी गरमाहट कहीं मिलती नहीं अम्मा 

इधर कितना अकेला मै उधर तू कहीं अम्मा,
मुझे सब लोग कहते है कि तू अब है नही अम्मा।
महकता है ये घर आंगन तेरी ममता की खुशबू से,
मै कैसे मन लूँ कि दुनियां में तू अब है नही अम्मा।

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